यूरोपीय गेहूं वायदा में लगातार तीसरे दिन भी गिरावट रही जारी। क्या है इसका कारण जानें इस रिपोर्ट में
साथियों, यूरोप के सबसे बड़े और प्रमुख गेहूं वायदा बाज़ार, पैरिस यूरोनेक्स्ट (Euronext) में इन दिनों कुछ ऐसा चल रहा है जो किसानों से लेकर अंतरराष्ट्रीय ट्रेडर्स तक को सोचने पर मजबूर कर रहा है। गेहूं की कीमतें वहां लगातार तीसरे दिन नीचे आई हैं, और ये गिरावट यूं ही मामूली नहीं है। इस गिरावट के पीछे कई ऐसे कारक हैं जो न सिर्फ यूरोप बल्कि पूरी दुनिया के कृषि बाज़ार को प्रभावित कर रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, इस गिरावट का सबसे बड़ा कारण बना है यूरो की डॉलर के मुकाबले मजबूती, जिससे यूरोपीय गेहूं का दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में महंगा पड़ रहा है। क्योंकि जब यूरो की वैल्यू बढ़ती है, तो यूरो में बिकने वाला गेहूं डॉलर में और भी महंगा हो जाता है, जिससे वो गेहूं आयातक देशों को कम आकर्षक लगने लगता है। वहीं दूसरी ओर, मौसम की मार, फसल उत्पादन का अस्थिर पूर्वानुमान और निर्यात मांग में गिरावट ने इस पूरे ताने-बाने को और उलझा दिया है। यही वजह है कि गेहूं के सितंबर वायदा अनुबंध में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। कुछ दिन पहले ही यह वायदा 213 यूरो प्रति टन के स्तर पर पहुंचा था, जो एक महीने का उच्चतम भाव था, लेकिन अब यह 205 यूरो पर आ गया है और दो हफ्ते पहले के न्यूनतम स्तर 201 यूरो की ओर बढ़ता दिख रहा है। यह सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि इसके पीछे छिपी हर छोटी-बड़ी वजह को समझना जरूरी है, तभी हमें यह समझ आएगा कि आने वाले समय में गेहूं की कीमतें किस दिशा में जाएंगी। तो चलिए, इस रिपोर्ट में विस्तार से अब हम एक-एक करके उन अहम कारणों पर चर्चा करेंगे, जिनकी वजह से ये गिरावट लगातार बनी हुई है।
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निर्यात में कमी
यूरोपीय गेहूं बाज़ार के लिए इस समय सबसे बड़ी परेशानी बनकर सामने आया है यूरो की मज़बूती। जब यूरो डॉलर के मुकाबले मज़बूत होता है, तो यूरोप का गेहूं महंगा हो जाता है। इसका सीधा असर होता है निर्यात पर। क्योंकि मिस्र, अल्जीरिया, ट्यूनिशिया, इंडोनेशिया जैसे बड़े गेहूं आयातक देश कीमत को बहुत बारीकी से देखते हैं, और जब उन्हें रूस या यूक्रेन से सस्ता गेहूं मिल जाता है, तो वे यूरोप की ओर देखना ही बंद कर देते हैं। अब जब यूरो ने एक महीने के ऊंचे स्तर को छू लिया है, तो गेहूं की इंटरनेशनल डील्स पर असर पड़ना तय है। ये वही समय होता है जब ट्रेडर्स और इम्पोर्टर्स डीलिंग रोककर "कटाई का मौसम" आने का इंतज़ार करते हैं, ताकि फसल आने पर दाम खुद-ब-खुद नीचे आ जाएं। इसका असर सीधा-सीधा फ्यूचर प्राइस पर दिखता है, और यही कारण है कि पैरिस वायदा बाज़ार में कीमतें लगातार गिर रही हैं।
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उत्पादन और मौसम की मार
अगर आपको बाज़ार का मूड जानना हो, तो मौसम सबसे बड़ा संकेतक होता है। इस बार यूरोप के कई हिस्सों में मौसम ने कुछ राहत भी दी है और कुछ चिंताएं भी। दक्षिणी यूरोप में हाल ही में अच्छी वर्षा हुई है, जिससे फसल की उम्मीद थोड़ी बढ़ी है। लेकिन उत्तरी यूरोप, खासकर उत्तरी जर्मनी, अभी भी पानी की किल्लत से जूझ रहा है। यूरोपीय संघ की निगरानी संस्था MARS ने सॉफ्ट गेहूं की औसत उत्पादकता का अनुमान थोड़ा सा बढ़ाया है, लेकिन यह वृद्धि बेहद मामूली है। इसका मतलब है कि उत्पादन को लेकर अब भी कोई ठोस भरोसा नहीं है। कई इलाकों में सिर्फ 30% तक ही सामान्य वर्षा हुई है, जिससे ज़मीन में नमी कम है और फसलों पर असर साफ दिख रहा है। इस समय किसान से लेकर व्यापारी तक सबकी निगाहें बादलों पर टिकी हैं। एक झड़ी बारिश आ जाए तो भाव कुछ सुधर सकते हैं, लेकिन अगर सूखा बढ़ता रहा, तो बाज़ार में डर भी बढ़ेगा।
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सस्ते विकल्पों की मौजूदगी
यूरोप को इस बार रूस और यूक्रेन जैसे बड़े उत्पादक देशों से भी जबरदस्त प्रतिस्पर्धा मिल रही है। रूस इस साल रिकॉर्ड गेहूं उत्पादन कर रहा है, और उसने सस्ते दामों पर निर्यात चालू भी कर दिया है। काला सागर क्षेत्र (Black Sea Region) से निकलने वाला गेहूं यूरोप के मुकाबले काफी सस्ता पड़ता है, और यही कारण है कि खरीदार रूस-यूक्रेन की तरफ ज्यादा झुक रहे हैं। इसके अलावा, यूरोपीय बाज़ारों में मांग वैसे भी कमजोर है। फ्रांस, जो EU का सबसे बड़ा गेहूं निर्यातक देश है, उसे भी इस बार अल्जीरिया और चीन से कम ऑर्डर मिले हैं। कारण? या तो सस्ते विकल्प उपलब्ध हैं, या फिर खरीदार "कटाई के बाद दाम घटने" का इंतज़ार कर रहे हैं।
मुनाफा वसूली
कुछ दिनों पहले जब खबरें आई थीं कि रूस और चीन में मौसम खराब हो सकता है, तो सटोरियों (speculators) ने उम्मीद में गेहूं खरीदना शुरू कर दिया था, इसे कहते हैं शॉर्ट कवरिंग। इसका नतीजा यह हुआ कि बाज़ार में थोड़ी तेजी आ गई थी। लेकिन जब यह अंदाज़ा गलत साबित हुआ और मौसम सुधरने लगा, तो वे लोग फौरन मुनाफा लेकर निकल गए। अब जब सटोरिए वापस बाहर निकले, तो बाज़ार फिर से नीचे गिर गया। ये एक आम ट्रेंड है — जो डर के वक्त बाज़ार में खरीदारी होती है, और जब डर हटता है, तो वही लोग बेचने लगते हैं।
सूखे का संकट अब भी बरकरार
उत्तरी जर्मनी, जहां यूरोप की एक बड़ी गेहूं फसल उगाई जाती है, इस साल पानी की कमी से बेहाल है। पिछले हफ्ते बारिश ज़रूर हुई थी, जिससे फसलों को कुछ राहत मिली, लेकिन लंबी अवधि की बात करें तो स्थिति अब भी गंभीर है। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि वहां अब तक सिर्फ 30% औसत वर्षा हुई है, यानी मिट्टी की नमी काफी कम है। हालांकि फिलहाल “फसल को तात्कालिक नुकसान नहीं” हो रहा, लेकिन अगर आने वाले हफ्तों में बारिश नहीं हुई, तो फसल पर गहरा असर पड़ सकता है। यानी बाज़ार में जो डर अभी सिर्फ अफवाह है, वो कुछ ही हफ्तों में हकीकत भी बन सकता है।
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About the Author
मैं लवकेश कौशिक, भारतीय नौसेना से रिटायर्ड एक नौसैनिक, Mandi Market प्लेटफार्म का संस्थापक हूँ। मैं मूल रूप से हरियाणा के झज्जर जिले का निवासी हूँ। मंडी मार्केट( Mandibhavtoday.net) को मूल रूप से पाठकों को ज्वलंत मुद्दों को ठीक से समझाने और मार्केट और इसके ट्रेंड की जानकारी देने के लिए बनाया गया है। पोर्टल पर दी गई जानकारी सार्वजनिक स्रोतों से प्राप्त की गई है।