मिल गया है आलू का उत्पादन दोगुना करने का फार्मूला | जाने पूरी डिटेल्स

 

कृषि विशेषज्ञों  ने आलू की खेती में एक अनोखी और प्रभावी तकनीक विकसित की है, जिसके चलते किसानों को आलू की खेती में दो गुना फायदा हो रहा है।उन्होंने  बताया कि वह पिछले 20 सालों से आलू की खेती कर रहे हैं, और यह उनकी फसल चक्र की एक महत्वपूर्ण फसल है। उन्होंने बताया कि केले की फसल कटाई के बाद आलू की बुवाई की जाती है, क्योंकि पोटाश की पर्याप्त मात्रा इस प्रक्रिया में फायदेमंद साबित होती है।

उन्होंने अपने अनुभव से सीखा कि आलू की खेती में नमी का सही प्रबंधन बेहद जरूरी है। पहले वह 28 इंच की दूरी पर आलू की बुवाई करते थे, जिससे नालियों की संख्या अधिक होती थी और नमी की जरूरत पूरी नहीं हो पाती थी। उन्होंने सोचा कि अगर नालियों की संख्या कम की जाए तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। इस सोच को उन्होंने व्यवहार में उतारा और 56 इंच की दूरी पर आलू की बुवाई शुरू की, जिससे नमी का प्रबंधन और बेहतर हुआ।

उन्होंने बताया कि 56 इंच की 'बेट' पर उन्होंने दो नालियों में आलू की बुवाई की। बीज की मात्रा में कोई कमी नहीं की गई, बल्कि करीब 30 हजार आलू के टुकड़े (60 ग्राम प्रति टुकड़ा) प्रति एकड़ में डाले गए, जिसका वजन करीब 18 क्विंटल था। जबकि सामान्य किसान एक एकड़ में करीब 13 से 14 क्विंटल बीज डालता है।

इस नई विधि के परिणामस्वरूप, पैदावार में बड़ा फर्क आया। पहले 28 इंच पर आलू की बुवाई करने पर 160 क्विंटल प्रति एकड़ उत्पादन होता था, लेकिन 56 इंच की बुवाई विधि से पैदावार 250 से 300 क्विंटल तक पहुँच गई। यह परिणाम किसान ने लगातार छह सालों तक ट्रायल के रूप में जांचा और इस तकनीक को पूरी तरह से अपनाया।

 इस विधि को 2021 से अपने 150 एकड़ की आलू खेती में पूरी तरह लागू कर दिया। उन्होंने बताया कि इस तकनीक से न केवल पैदावार में वृद्धि हुई है, बल्कि खुदाई भी पहले से आसान हो गई है। इसके अलावा, उन्होंने 6-7 अलग-अलग वैरायटी की आलू की खेती भी की है, जिससे फसल की विविधता में भी वृद्धि हुई है।

इस तकनीक से आलू की खेती करने वाले किसानों को न केवल पैदावार में वृद्धि होती है, बल्कि लागत भी कम आती है और नमी का प्रबंधन भी आसानी से हो जाता है। यह तकनीक किसानों के लिए लाभकारी साबित हो रही है, जिससे उनका मुनाफा दो गुना हो रहा है।

आलू की खेती में विविधता और उन्नत तकनीक को अपनाकर अपनी फसल को सफल बनाने के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान दिया गया । उन्होंने अपने खेतों में छह-सात अलग-अलग वैरायटी की आलू की खेती की है, जिसमें "कुफरी चिप्सोना", "कुफरी बहार", "राजेंद्र वन", "ख्याती", "फ्राई सोना", और "सरपो मेरा" जैसी किस्में शामिल हैं। किसान का उद्देश्य इन वैरायटीज के उत्पादन और उनके द्वारा आवश्यक खाद की मात्रा की तुलना करना है। यह ट्रायल उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे यह देखना चाहते हैं कि कौन सी वैरायटी कम खाद में अधिक उपज देती है और कौन सी को अधिक खाद की आवश्यकता होती है।

किसान ने बताया कि उनकी कुछ वैरायटी 30 दिन की होती हैं, कुछ 80 दिन की, और कुछ 120 दिन की होती हैं। इसका फायदा यह है कि वे आलू की खुदाई अलग-अलग समय पर कर सकते हैं, जिससे बाजार में उनका आलू नियंत्रित रूप से उपलब्ध होता है और उन्हें अधिक मुनाफा मिलता है। जनवरी में 80 दिन की वैरायटी की खुदाई कर ली जाती है, होली के आसपास 90 दिन की वैरायटी की खुदाई होती है, और मार्च में कुछ वैरायटी की खुदाई करके बाजार में बेचा जाता है। 120 दिन की वैरायटी को वे स्टोर में रख देते हैं ताकि साल भर आलू बेचने का अवसर बना रहे।

इस विधि से किसान का बाजार पर नियंत्रण बना रहता है और उन्हें कभी नुकसान नहीं हुआ है। उन्होंने बताया कि 25 सालों में आलू की खेती करते हुए उन्होंने हमेशा मुनाफा कमाया है, चाहे वह खेत से आलू बेचने का मामला हो या स्टोर में रखकर बेचने का। इस अनुभव से उन्होंने यह भी सिखाया कि किसानों को एक ही वैरायटी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि विभिन्न किस्मों की खेती करनी चाहिए।

कुफरी चिप्सोना वैरायटी के बारे बताया कि यह रोग-मुक्त होती है, जबकि "राजेंद्र वन" जैसी वैरायटी में रोग लगने की संभावना होती है। इसीलिए, किसान भाइयों को एक ही वैरायटी की खेती करने से बचना चाहिए और विभिन्न वैरायटी को लगाकर जोखिम को कम करना चाहिए।

इसके अलावा, उन्होंने ने सलाह दी कि बीज का आकार 50 से 60 ग्राम के आसपास होना चाहिए, जिससे पौधा मजबूत होता है और अधिक आलू पैदा होते हैं। बड़े आकार के बीज से पौधा मजबूत बनेगा और एक पौधे में 800 से 900 ग्राम तक आलू पैदा होंगे।

आपका अनुभव और आलू की खेती में अपनाई गई विधियों से अन्य किसानों को भी महत्वपूर्ण लाभ मिल सकता है।

दोस्तों उत्तर प्रदेश में आलू की बुवाई का आदर्श समय 15 अक्टूबर से 5 नवंबर के बीच माना जाता है। इस अवधि में आलू लगाने से उत्पादन अधिक होता है। अगर बुवाई 5 नवंबर के बाद होती है, तो उत्पादन में कमी आने की संभावना बढ़ जाती है। इसी तरह, 5 अक्टूबर से पहले भी आलू लगाने से उपज प्रभावित हो सकती है।

आपका फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन) का उपयोग और विविधता (डायवर्सिफिकेशन) पर ध्यान देना भी बहुत लाभदायक है। ऊपरी, मध्यम, और गहरी जड़ों वाली फसलों का चक्र फसल की सेहत के लिए महत्वपूर्ण होता है। जैसे मक्का, ज्वार, ढांचा, और धान जैसी फसलों के बाद आलू लगाने से पैदावार में बढ़ोतरी होती है और खाद की बचत भी होती है।

आपके द्वारा सुझाई गई कुंदरी चिप्सोना, राजेंद्र वन, कुफरी बहार, और ख्याती जैसी आलू की विविध वैरायटी का उपयोग करना भी महत्वपूर्ण है। हर वैरायटी की अलग-अलग खासियत होती है। जैसे चिप्सोना और ख्याती में लेट ब्लाइट रोग नहीं लगता, जबकि कुफरी बहार 90 दिनों में तैयार होकर सबसे ज्यादा किसानों के बीच लोकप्रिय है।

आपकी फसल चक्र की विधि से पैदावार में सुधार होता है और लागत में भी कमी आती है। जब किसान एक ही खेत में साल दर साल आलू नहीं लगाते, बल्कि गेहूं, सरसों, या सब्जियों जैसी अन्य फसलें लेते हैं, तो मिट्टी में पोषक तत्वों का संतुलन बना रहता है, जिससे उत्पादन की गुणवत्ता और मात्रा दोनों में वृद्धि होती है।

आलू की बुवाई के लिए सही बीज का चयन और उसकी मात्रा पर भी आपने सही जोर दिया। बीज के टुकड़े का वजन 50-60 ग्राम होना चाहिए, जिससे पौधा मजबूत होता है और उपज बढ़ती है। बड़े बीज के टुकड़े का उपयोग करने से पौधा मजबूत बनता है और 800-900 ग्राम तक आलू एक पौधे में पैदा होते हैं।

इस तरह की तकनीकों और विविधता को अपनाने से किसानों की आय में सुधार होता है और जोखिम कम होता है।

नोटः दी गई जानकारी किसानों के निजी अनुभव और इन्टरनेट पर उपलब्ध भरोसेमंद स्त्रोतों से जुटाई गई है। किसी भी जानकारी को प्रयोग में लाने से पहले नजदीकी कृषि सलाह केंद्र से सलाह जरूर ले लें

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About the Author
मैं लवकेश कौशिक, भारतीय नौसेना से रिटायर्ड एक नौसैनिक, Mandi Market प्लेटफार्म का संस्थापक हूँ। मैं मूल रूप से हरियाणा के झज्जर जिले का निवासी हूँ। मंडी मार्केट( Mandibhavtoday.net) को मूल रूप से पाठकों  को ज्वलंत मुद्दों को ठीक से समझाने और मार्केट और इसके ट्रेंड की जानकारी देने के लिए बनाया गया है। पोर्टल पर दी गई जानकारी सार्वजनिक स्रोतों से प्राप्त की गई है।